चन्द्रवदनी तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है,यह शक्ति

लचन्द्रवदनी तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है,यह शक्ति पीठ

टिहरी गढवाल । राजेन्द्र पन्त ‘रमाकान्त ‘

चन्द्रवदनी (टिहरी गढ़वाल)।तीर्थाटन,पर्यटन,व आध्यात्म की दृष्टि से अतुलनीय उत्तराखड़ आदि काल से ही परम पूज्यनीय रहा है।यहां की पावन भूमि आस्था व भक्ति का अलौकिक संगम है,अलौकिक महिमाओं को समेटे तीर्थ स्थलों की लम्बी श्रृंखला,कदम कदम पर देवालयों के दर्शन यहां पधारने वाले आगन्तुकों के हृदय को निर्मलता प्रदान करती है,तमाम अद्भूत दर्शनीय स्थलों में से एक आस्था व पावनता का संगम स्थल भक्ति व मुक्ति प्रदान करने वाली माँ चन्द्रवदिनी का महत्व सबसे निंराला है।उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी गढ़वाल में स्थित माता चन्द्रवदिनी का मन्दिर अनेक अलौकिक रहस्यों को अपने आप में समेटे हुए है।भगवती चन्द्रवदिनी का यह दरबार सदियों से भक्तों के मनोरथ  को सिद्ध करने वाला दरवार माना गया है,मान्यता है,कि देवी के इस दरवार में श्रद्वापूर्वक की गयी पुकार कभी भी निंष्फल नही जाती है। भक्तों के हृदय में भक्ति का सचांर करने वाली मातेश्वरी चन्द्रवदिनी की अपरम्पार महिमां को शब्दों में कदापि नही समेटा जा सकता है।जो जिस भाव से यहां पधारता है,भक्ति का संचार व मोह का हरण करने वाली माता चन्द्रवदनी उसकी समस्त अभिलाषायें पूर्ण करती है।
इस मंदिर की महिमां का वर्णन पुराणों में अनेक स्थानों पर आया है।स्कंद पुराण में चन्द्रकूट पर्वत के प्रसंग में चन्द्रवदनी माता भुवनेश्वरी की सुन्दर लीला का वर्णन आया है।स्वयं भगवान  शिव के पुत्र स्कंद ने इस सिद्व पीठ की महिमां का वर्णन करते हुए देवताओं को बताया है।यह स्थान समस्त सिद्धियों का प्रदाता है।इस शक्ति स्थल के दर्शन से जन्म जन्मांतर के पापों का हरण हो जाता है,गंगा के पूर्व भाग में स्थित चन्द्रकूट पर्वत में स्थित इस स्थल को भुवनेश्वरी पीठ के नाम से भी जाना जाता है।
गंगायाः पूर्वभागे हि चन्द्रकूटो गिरिः स्मृतः।
तस्यापि दर्शनादेव मुच्यते जन्मपातकात्।।
शंकरप्रिया भगवती भुवनेश्वरी चन्द्रवदिनी के इस क्षेत्रं के बारे में भगवान स्कंद ने कहा है।इस स्थान के द्वार स्थान पर साक्षात् भगवान् भैरव विराजमान है।अत्यन्त ऊँचे स्थान पर अवस्थित परमेश्वरी को जो नमस्कार करते है,उनका पराभव नही होता है।
कहा जाता है,कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुण्ड में माता सती के देह त्यागे जाने के बाद व्याकुल भगवान शंकर उनकी चन्द्रमुखी छवि का स्मरण कर विरहातुर होकर विलाप करने लगे शोकाकुल भगवान शिव के शोक सन्तप्त होने पर समस्त त्रिभुवन शोकाकुल हो उठा कैलाश पर्वत पर शिव के शोकाकुल हो उठने से  ब्रह्मा आदि देवता भी सन्तप्त हो उठे यक्ष,मुनि,सिद्व,गन्धर्व,किन्नर आदि भी शोक की ज्वालाओं से दहकने लगे, शोक से उबरने के लिए सभी ने परम श्रद्वा के साथ महामाया भगवती चन्द्रवदनी की स्तुति की स्कंद पुराण में इस स्तुति का सुन्दर उल्लेख मिलता है,
ब्रह्मा सहित देवगण व सिद्व मुनी गन्धर्व   भगवान शिव के व्याकुल होने पर सृष्टि को ब्याकुलता से रोकने के लिए भगवती भुवनेश्वरी चन्द्रवदनी माता की इस प्रकार स्तुति करने लगे ।*प्रकृत्यै ते नमस्तेस्तु भिन्नाये पुरुषात्रमः।सृष्टिकत्रयै सृष्टिहत्यै देव्यै तस्यै नमो नमः।।*
प्रकृतिस्वरूपा आपको नमस्कार है।पुरुष से भिन्न आपको नमस्कार है।सृष्टि करने वाली,सृष्टि का विनाश करने वाली उस देवी को बार बार नमस्कार है।
*अनादिनिधनो देवो यया मोंह प्रवेशितः।
किमुत प्राकृता देव्यै नारायण्यै नमोनमः*
जिस देवी ने आदि और अंत से रहित देव को मोह में डाल दिया,उसके लिए सामान्य पुरूष क्या है,नारायणी देवी को नमस्कार है।
इस प्रकार भांति भांति प्रकार से माँ चन्द्रवदनी का स्मरण कर देवगण कहने लगे ।जिसने सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की और जो त्रिभुवन में ब्याप्त है,जिसने संसारीसामान्यजन की तरह ममता रहित परमानन्द स्वरुप महादेव को मुग्ध कर दिया,जिस महादेवी ने योगेश्वर विष्णु को मोह में डाल दिया,जिसने पूर्व काल में तीनो लोको के रचियता ब्रह्म देव को पुत्री के प्रति आसक्त हृदय का बना दिया,जिस देवी ने चन्द्रमां को गुरुपत्नी के प्रति मोहित कर उसके पिछे लगा दिया,जिसके द्वारा मोहित सम्पूर्ण जगत सारा कुकर्म या सुकर्म करता है,जिसके द्वारा सम्मोहित जन्तु मृत्यु को प्राप्त होता हुआ भी यह मेरा है।ऐसा बोलता है।व अनित्य पुत्र,स्त्री,धन आदि को नित्य मानता है,तथा जिसके द्वारा मोहित प्राणी ,मरे हुए,मरते हुए,और मरने के लिए उद्यत् प्राणियों को देखकर जीने की अभिलाषा रखता है,उस देवी को बारम्बार नमस्कार है।इस तरह से भातिं भातिं प्रकार से देवताओं आदि के समुदाय ने शोकाकुल शिव के सामने महादेवमोहिनी देवी जगदम्बा की स्तुति की।प्रसन्न देवी ने सभी को अपने अलौकिक स्वरुप के दर्शन कराये,सिन्दूर के लेप से लाल अगों वाली,तीन नेत्रोंवाली,एक हाथ में पानपात्र तथा दूसरे में कलम धारण करने वाली चमकती रत्नों से शोभित चन्द्रमुखी,विश्व को आनन्द देने में सूर्य के समान दृश्य वाली उस देवी को देखकर भगवान शिव मोह से रहित होकर क्षण भर में ही स्वस्थ्य हो गये।देवगण,ऋषिगण,व सिद्वगणों आदि के समुदाय भी हर्षित होकर देवी की परिक्रमां करके बारम्बार मातेश्वरी को प्रणाम करने लगे तथा प्रसन्नता पूर्वक अपने अपने लोकों को चले गये।तभी से यह पीठ श्रेष्ठ शक्ति पीठ के रुप में पूज्यनीय हो गया,और महादेव यही रहने लगे।इसी स्थान पर महादेव महादेवी की कृपा से माता सती के वियोग की पीड़ा से मुक्त हुए थे,
स्कंद पुराण में स्वंय भगवान स्कंद ने इस क्षेत्रं की महिमां का बखान करते हुए कहा है।जो यहां तीन रात फल मूल खाकर निवास करके देवी को जपता है,उसे उत्तम सिद्धि की प्राप्ति होती हैं,यहां जो दान दिया जाता है,वह सब करोड़ की सख्यां में हो जाता है।इससे बढ़कर कोई पीठ तीनों लोकों में नही है।
*त्रिरात्रं यो महाभाग फलमूलकृताशनः।निवसेच्च जपेदेवीं साधयेत्सिद्वि मुत्तमाम्।।
यदत्र दीयते दांन तत्सर्व कोटिसंख्यकम् ।नस्मात्परतरं पीठं त्रैलोक्ये मुनिवन्दित।।
जो माता चन्द्रवदनी के इस पावन स्थल पर देवीसूक्त के द्वारा मातेश्वरी की स्तुति करता है,वह जीवन का आनन्द प्राप्त कर मोक्ष का भागी बनता है। इस मंदिर में देवी माँ की मूर्ति के दर्शन कुमाऊं के देवीधूरा स्थित वाराही देवी की भातिं ही वर्जित है।कहा जाता है,जो दर्शन की चेष्टा करता है,वह अधां हो जाता है,विशेष अवसर पर पुजारी द्वारा आखों में पट्टी बाध कर दूध से देवी मूर्ति को स्नान कराने की प्राचीन परम्परा आज भी कायम है।
जनपद टिहरी गढ़वाल की चन्द्रबदनी पट्टी में मां भगवती का यह पौराणिक मन्दिर  देवप्रयाग–टिहरी मोटर मार्ग तथा श्रीनगर–टिहरी मोटर मार्ग के मध्य स्थित चन्द्रकूट पर्वत पर है।
यहां पहुंचने के लिये देवप्रयाग–टिहरी मोटर मार्ग पर लगभग तीस किमी आगे एक छोटा सा कस्बा जामणीखाल है ।यही से ऊपर की ओर रमणीक घाटियो के दर्शन करते हुए लगभग पौने घण्टे के वाहन के सफर के पश्चात् व जुराणा गांव से आधा किमी पैदल चलकर 8000मीटर की ऊचाई पर स्थित इस मंदिर में पहुचा जा सकता है।चन्द्रबदनी मंदिर में श्री यंत्र की पूजा होती है।कहा जाता है,कि आठवी शताब्दी में शंकराचार्य जब उत्तराखण्ड भ्रमण पर आये तो उन्होने यहां पर यंत्र की स्थापना की तभी से यंत्र की पूजा होती है।

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