गुरु पूर्णिमा पर्व ईश्वर प्राप्ति का द्वार – अरविन्द तिवारी…

गुरु पूर्णिमा पर्व ईश्वर प्राप्ति का द्वार – अरविन्द तिवारी

 

नई दिल्ली — गुरु पूर्णिमा का त्यौहार प्रतिवर्ष आषाढ़ माह में पूर्णिमा यानि आज ही के तिथीनुसार मनाया जाता है। यह हिन्दू धर्म के लिये महत्वपूर्ण पर्व है जो भारत के पौराणिक इतिहास के महान संत ऋषि व्यास की याद में मनाया जाता है। इस दिन हिन्दू धर्मग्रन्थ महाभारत के रचयिता गुरु वेदव्यास जी का जन्म भी हुआ था , उन्होंने मानव जाति को चारों वेदों का ज्ञान दिया था और सभी पुराणों की रचना की थी। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि गुरू की महिमा का वर्णन करना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। गुरू का ज्ञान और शिक्षा ही जीवन का आधार है , गुरू के बिना जीवन की कल्पना भी अधूरी है। सनातन अवधारणा के अनुसार इस संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता-पिता देते हैं लेकिन मनुष्य का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है। गुरू जगत व्यवहार के साथ साथ भव तारक , पथ प्रदर्शक भी होते हैं। जिस प्रकार माता-पिता शरीर का सृजन करते हैं उसी तरह से गुरू अपने शिष्य का सृजन करते हैं। गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।। गुरू का स्थान ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। गुरु शब्द में ‘गु’ का अर्थ है अंधेरा और ‘रु’ का अर्थ है अंधकार को दूर करना। गुरू हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं।अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान रुपी प्रकाश से जीवन को सफलता के उजाले की ओर ले जाने का कार्य गुरु के आशीर्वाद से ही संभव होता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिये एक श्लोक के अनुसार —  यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु अर्थात् जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिये है वैसी ही गुरु के लिये भी होती है, बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है , किन्तु गुरु के लिये कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका , गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। गुरूपूर्णिमा का पर्व पूरे देश में मनाया जाना स्वाभाविक है , भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्यंत महत्व है।गुरुपूर्णिमा गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण का त्यौहार है। यह त्यौहार गुरु के सम्मान का त्योहार है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन गुरु की पूजा करने से उनके शिष्यों को गुरु की दीक्षा का पूरा फल मिलता है।गुरुपूर्णिमा का त्यौहार मुख्यत: दो प्रमुख समुदायों से जुड़ा हुआ है। पहला है हिंदू धर्म , गुरु पूर्णिमा को भगवान शिव की पूजा के लिये मनाया जाता है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने अपने सात अनुयायियों (सप्तऋषियों) को योग का ज्ञान दिया और इस तरह वे एक गुरु बन गये। दूसरा है बौद्ध धर्म , यह त्यौहार बुद्ध को सम्मान देने के लिये मनाया जाता है। बौद्धों का मानना ​​​​है कि इसी पूर्णिमा के दिन बुद्ध ने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त करने के बाद उत्तरप्रदेश के सारनाथ शहर में अपना पहला उपदेश दिया था। तभी से उनकी पूजा के लिये गुरु पूर्णिमा के पर्व को चुना गया है। युग कोई भी रहा हो , हमेशा गुरु का सम्मान होता रहा है। संत कबीरदास ने भी गुरु को गोविंद से महान बताते हुये उनका महिमामंडन करने की बात कही है। हर युग में , गुरु सदैव पूजनीय रहे हैं और रहेंगे। सदियों पुरानी गुरु पूजन परंपरा आज भी जीवित है। गुरु पूर्णिमा में गुरु पूजा का विशेष महत्व है। शिष्यों में शिक्षक के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं है। अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य से लेकर मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के गुरु रमाकांत आचरेकर ने गुरु की विश्वसनीयता बनाये रखी है। मानव मन में व्याप्त बुराई रूपी विष को दूर करने में गुरु का विशेष योगदान है। गुरू शिष्य का संबंध सेतु के समान होता है , उनकी कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कई जगह गुरू महिमा का बहुत ही सटीक , सुंदर और महत्वपूर्ण वर्णन किया है।रामचरित मानस की पहली चौपाई में गुरु महिमा बताते हुये तुलसी दास जी कहते हैं- बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू। अर्थात- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है। अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में गुरु वंदना करते हुये तुलसीदास जी कहते है- जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं , ते जनु सकल बिभव बस करहीं। अर्थात- जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं , वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। मानस में आगे लिखते हैं – गुरू बिनु भव निधि तरई न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।। अर्थात- गुरू के बिना अज्ञान के भवसागर से ब्रह्मा , शंकर सदृश देव भी पार नही हो सकते हैं। हरि रूठे गुरु ठौर है , गुरु रूठे नहिं ठौर॥’ अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है। रामचरितमानस के अलावा भी तुलसीदास जी ने यत्र तत्र सर्वत्र गुरू महिमा का वर्णन अपनी विभिन्न रचनाओं में किया है। वास्तिवकता तो यही है कि जीवन के हर क्षेत्र में गुरू का मार्गदर्शन हर किसी को आवश्यक है। परंतु जब मनुष्य आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो गुरू की अत्यधिक आवश्यकता होती है। ऊँचाइयों तक पहुंचने में गुरू का मार्गदर्शन सूर्य के प्रकाश के समान है। गुरू कभी भी हमारा अहित नही करते बल्कि मुश्किल की घड़ी में सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। रास्ता कोई भी हो, कैसा भी हो उसे सरल और सुगम बनाने में गुरू की शिक्षायें रेगिस्तान में पानी के समान होती हैं। मोक्ष का द्वार हो या आध्यात्म का मार्ग हर मार्ग की सफलता गुरू के आशीर्वाद से अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है। ईश्वर भी गुरू के बिना नही मिलता तभी तो गुरू का दर्जा ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते। गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशयः।। अर्थात गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता , वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से मनुष्य नि:संदेह सभी कुछ प्राप्त कर ही लेता है। दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्। गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन।। अर्थात जैसे दूध के बिना गाय , फूल के बिना लता , चरित्र के बिना पत्नी , कमल के बिना जल , शांति के बिना विद्या, और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता। गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते।कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः।। अर्थात – जहाँ गुरु की निंदा होती है, वहाँ उसका विरोध करना चाहिये। यदि यह शक्य (संभव) ना हो तो कान बंद करके बैठना चाहिये और यदि यह भी शक्य (संभव) ना हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिये।
पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः। कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी।। अर्थात इंसान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी (अज्ञानी) रहे , वह मूर्ख पानी से भरे हुये सरोवर के पास होते हुये भी प्यासा , घर में अनाज होते हुये भी भूखा , और कल्पवृक्ष के पास रहते हुये भी दरिद्र है। इतिहास गवाह है कि अवतारी महापुरूषों को भी गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। भगवान श्रीराम भी महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र जैसे गुरुओं के सानिध्य में ही अपना सर्वांगीण विकास करने में सफल हुये। श्रीकृष्ण को कृष्णं वंदे जगतगुरुम् कहा जाता है फिर भी कृष्ण का जीवन गर्ग ऋषि एवं संदीपन ऋषि के मार्गदर्शन ने ही आलोकित किया है। कहने का आशय ये है कि प्रत्येक मनुष्य को सम्पूर्ण विकास हेतु एवं आध्यात्मिक प्रकाश के लिये गुरु का सानिध्य अति महत्वपूर्ण है। गुरु का कार्य नैतिक , आध्यात्मिक , सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है। राजा दशरथ के दरबार में गुरु वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है ? जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका भारत में केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है , देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात् अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। जीवन का विकास सुचारू रूप से सतत् चलता रहे उसके लिये हमें गुरु की आवश्यकता होती है। भावी जीवन का निर्माण गुरू द्वारा ही होता है। गुरु के बिना कोई भी महान होने की कल्पना नहीं कर सकता। स्पष्ट है यदि हमें अपने समाज देश व सभ्यता को अधिक श्रेष्ठ बनाना चाहते है तो हमें अपनी पुरातन गुरु शिष्य परम्परा तथा शिक्षा प्रणाली को अपनाना होगा। जीवन में सफलता की सीढियाँ तभी चढ़ा जा सकता हैं जब हमें गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त हो। उनके पथप्रदर्शन के बिना मानव भ्रमित हो जायेगा , अपने इच्छित लक्ष्य से भटक जायेगा। बदले में गुरु हमसे धन दौलत कुछ नहीं चाहता बस उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता हैं।
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरु की महिमा को स्वीकार करने वालों के लिये शब्दों की नहीं भाव की प्रधानता होती है , गुरु के प्रति समर्पण की जरुरत होती है। गुरु पूर्णिमा एक अवसर होता है जब हम गुरु के प्रति सम्मान सत्कार और अपनी तमाम भावनायें उन्हें समर्पित करते हैं। इस दिन गुरु पादुका पूजन , गुरु दर्शन करें। नेवैद्य , वस्त्रादि भेंट प्रदान कर दक्षिणादि देकर उनकी आरती करें तथा उनके चरणों में बैठकर उनकी कृपा प्राप्त करें। यदि गुरु के समीप जाने का अवसर ना मिले तो उनके चित्र , पादुकादि प्राप्त कर उनका पूजन करें। गुरु की कृपा हम सब को प्राप्त हो।

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